Friday, 14 October 2016

TRUMP TALK: 2

TRUMP TALK: 2



ब्लैक अमेरिकन्स को ट्रंप की सलाह है कि वे अपना वोट उन्हें देकर बर्बाद न करें। क्योंकि उन्हें वोट देने से वे "काले" से "गोरे" नहीं होने वाले।

Wednesday, 12 October 2016

ट्रंप टॉकः1

ट्रंप टॉकः1




डोनाल्ड ट्रंप अमरीकियों से कह रहे हैं कि आपके वोट देने या न देने से मेरी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। वोट दोगे तो मैं वाइट हाऊस में रहूंगा और नहीं दोगे तो उसके सामने रहूंगा। क्योंकि जल्द ही मैं वहां अपना बिजनेस शुरू करने जा रहा हूं।

Tuesday, 11 October 2016

" मुस्लिम इतिहास की एक हिन्दू कथा "

" मुस्लिम इतिहास की एक हिन्दू कथा "


हर साल मुहर्रम के दिन दुनिया भर के मुसलमान कूफे के बादशाह यजीद द्वारा पैगम्बर हजरत मौहम्मद के नवासे, हजरत इमाम हुसैन की उनके 74 संबंधियों के साथ तड़पा-तड़पा कर करबला के मैदान में की गई हत्या की याद में रो-रोकर मातम मनाते हैं लेकिन एक मुस्लिम इतिहासकार ने जो बताया है उसे कोई नहीं बताता। उसने लिखा है कि हजरत इमाम हुसैन की शहादत का बदला एक हिंदू ब्राहम्ण कबीले के सरदार राजा सिंहभोग ने लिया था। वह स्वयं को द्रोणाचार्य का वंसज मानता था। जब उसने सुना की हजरत इमाम हुसैन के साथ ऐसा अन्याय हुआ है तो उसने कूफे के किले पर आक्रमण किया और अपने हाथों से हजरत इमाम हुसैन के हत्यारे यजीद की सिर काट डाला। यद्यपि इस युध्द में उसके सात बेटों में से चार बेटे शहीद हुए लेकिन उसने उमाम हुसैन की हत्या का बदला लेने का जश्न मनाया। समूचे अरब ईरान में डोंगी पिटवाकर ऐलान करवाया कि मुसलमान भाइयों शांत हो जाओ हमने इमाम हुसैन की शहादत का बदला ले लिया है। इस घटना के बाद से वे ब्राहम्ण राजा और उसके वंशज हुसैनी ब्राहम्ण कहलाए। पंजाब के शिक्षा मंत्री रहे कृष्णदत्त शर्मा हुसैनी ब्राहम्ण थे। यहां तक की सुनील दत्त भी खुद को हुसैनी ब्राहम्ण कहते थे। मुस्लिम भाटों ने इस युद्ध की याद में हुसैनी पोथी लिखी जो आल्हा के समान वीर काव्य है। जिसे मुहर्रम के दिन मुस्लिम भाट हुसैनी ब्राहम्णों के इलाकों मंम जाकर गा-गाकर सुनाया करते थे।

Thursday, 29 September 2016

लेमन-सोड़ा

हम भारतियों का खून कोई लेमन-सोड़ा नहीं...
जिसे नवाज़, राहिल, मसूद, मुशर्रफ या दाऊद जैसे औंगे-पौंगे पी सके...

Thursday, 15 September 2016

महिला मच्छर


महिला मच्छर


...काश देश में "पुरूष आयोग" नाम की

 कोई संस्था होती तो इन महिला मच्छरों के खिलाफ

 सबसे पहली शिकायत मैं दर्ज करवाता...

अखिलेश




इसमें अखिलेश की कोई गलती नहीं...

साइकल है तो पंचर होगी ही...

जीभ की व्यथा

जीभ की व्यथा


अब तक फिल्मों में ही विलेन को कहते सुना था। "

तेरी जीभ बड़ी लंबी हो गई है... इसे थोड़ा काटना 

पड़ेगा।"

आज देख भी लिया।

Monday, 5 September 2016

गणेश प्रतिमा 2016
(इस वर्ष की गणेश प्रतिमा पतंजलि के बर्तन बार से निर्मित है)














......................................................................................................................................................





Sunday, 21 August 2016

वाह जनाब!


वाह जनाब!

...अब पता चला कि माननीय केजरीवाल जी को दिल्ली पुलिस अपने अधीन क्यों चाहिए... 
वैसे शिवराज के इस फोटो से यह तो स्पष्ट हो गया कि सरकार पुलिस-प्रशासन के बल पर ही चलती है...


Monday, 16 May 2016

प्रत्येक रविवार एक नया काम...

गर्मी की छुट्टियां लग चुकी है। बेटी का स्कूल बैग अब राहत की सांस ले रहा है। कॉपी-किताबें दराज में वैसे ही जा बैठी हैं जैसे एक सैनिक लंबी छुट्टी लेकर घर में पड़ा रहता है। स्कूली वर्दी भी अब धुल-धुलाकर मां की अलमारी में घुस चुकि है। मानों साड़ियों के ढ़ेर के बीच 'स्टोरी टेलिंग' का मजा लूट रही हों। और इन सब के बीच मेंरा राजा बेटा उन्मुक्त पवन सा दिन भर यहां से वहां घूम रहा है। न कोई चिंता और न फिकर। मां जब कहे तो सोना और पापा जब बोले तो उठना। न घड़ी का महत्व, न भागती सुइयों का कोई भय। दिन भर टीवी-कम्प्यूटर देखना, अपनी सहेलियों के साथ उझल कूद करना, जूड़ो-कथ्थक की क्लास में जाना और शाम ढ़लते ही स्वीमिंग पूल में कूद पड़ना। बस यही जीवन है।
ऐसे व्यस्त जीवन में पापा कोई काम बोल दें तो मूड़ खराब होना ही होना है। लेकिन शायद 'पापा' उन्हें ही कहते हैं। जो रंग में भंग डाले। बने-बनाए मूड़ का सत्यानाश कर दे। दिमाग का दही जमा दें और बिगड़ जाएं तो उसका फालूदा भी बना दें। हर बात में रोके-टोके और बिला वजह डांटे। दुनियां के सारे नियम कायदे उन्हें अपने बच्चे पर ही आजमानेे होते हैं। फिर भले ही खुद उन्हें फॉलो करें या न करें। शायद इसलिए ही मेरी बेटी मुझे "नो मैन" कहकर बुलाती है। यह "यस मैन" और "नो मैंन" की कहानी तब और प्रासंगिक लगती है जब पापा टीवी देखने को 'ना' कहे और मां 'हां'। और फिर घर में दादा-दादी हों तो पापा की कौन सुनता है। पापा की हालत तो शहर के पुलिस की तरह हो जाती है। जिसका कोई भय नहीं। घर के शैतान खुले आम धींगा-मस्ती करते हैं और पापा चौराहे पर खड़े पुलिस वाले की तरह मोम की मूर्ती बने रहते हैं। वो तो भला हो 'मैडम तुसाद' की नज़र अब तक मुझ पर नहीं पड़ी वरना वे मुझे कब की उठा कर ले जाती और अपने म्यूज़ियम में सजा देती। तारीफ में नीचे लिख भी देती, "रुजुला के पापा"। और देश में खब़र तक न झपती।

खैर! मोम की मूर्ती मैैं जब बनू तब बनूं। फिलहाल तो घर में "लौह पुरुष" की भांति दमक रहा हूं। और इस 44 डिग्री टेम्परेचर में तो तप कर कुंदन हुए जा रहा हूं। "रुजुला" के लिए गर्मी की छुट्टियों का शायद यही सबसे बोरिंग समय है। ऐसा ही एक बोरिंग सेशन अब प्रत्येक रविवार की सुबह पापा का होना है। जब वे अपने 'मन की बात' करेंगे। प्रत्येक रविवार एक नया काम..
फिर वह कुछ भी हो सकता है। कोई भी एक मंत्र या स्तोत्र याद करना। अपनी साइकल धोना। अपने खिलौने व्यवस्थित करना, बुक शेल्फ साफ करना, कपड़े जमा कर रखना, धुले कपड़ों की तह लगाना, झाडू लगाना, अपने जूते धोना व पॉलिश करना आदी।
बीता रविवार भी कुछ ऐसा ही था। जब 'रुजुला' ने अपने जूते पॉलिश किए और जुराबें धोकर रक्खी। साथ ही दो-दो हाथ पापा-मम्मी के जूते और सैंडल पर भी दे मारे ताकी अपनी शाबासी डबल बोनस के साथ ले सके। वह भी खूब जानती है कि एक बार टीए-डीए बढ़ा तो बढ़ा। फिर अगली बार उससे कम कुछ भी मंजूर नहीं। यह तस्वीरें उसी ओपनिंग सेशन की हैं। जो अब प्रत्येक रविवार होना ही होना है। "काम और फिर बोनस चाटती रुजुला।"
चाहता हूं आप भी इसे देखें और अपने सुझाव दें। हो सके तो अपने बच्चों पर लागू करें। 
धन्यवाद।


..............................................................................................................................................

Saturday, 30 April 2016

हमें चाहिए ऑड सवालों के ईवन जवाब
.......................................................................................................

कोई मुझे यह तो बताये कि सरकार किसे कहते हैं? उसे जो अपने राज्य के अधिकारों के प्रति सजग हो या फिर उसे, जो पड़ोसी राज्य के जुल्मो-सितम को भी सिर झुकाकर स्वीकार कर ले। क्या उस संवैधानिक ढांचे को सरकार कहलाने का हक है जो अपने ही नागरिकों के अधिकारों की रक्षा न कर सके। शायद नहीं। लेकिन ऑड-ईवन पर दिल्ली के पड़ोसी राज्यों की सरकारों का यही हाल है। वे आंख मूंद कर बैठी है। उन्हें अपने नागरिक अधिकारों की कोई चिंता नहीं। वे तो कुंभकर्णी नींद में है। उनका पड़ोसी मुख्यमंत्री एक के बाद एक तुगलकी फरमान जारी कर रहा है और वे उसे सिर झुका कर स्वीकार कर रहीं हैं। और सारा दोष राजा को ही क्यों दोष दें? राज्य की जनता भी उतनी ही दोषी है। वैसे भी जिस राज्य की जनता उदासीन हो वहां की सरकारों से क्या अपेक्षा की सकती है। जिन राज्यों में हर रोज़ चोरी-डकैती आम बात हो वहां पड़ोसी राज्य का मुख्यमंत्री उनकी पॉकेटसे कुछ पैसे मार ले तो उन्हें क्या फर्क पड़ेगा। फर्क तो तब पड़े जब उन्हें अपने अधिकारों की चिंता हो। यथा राजा तथा प्रजा
दिल्ली में ऑड-ईवन 15 अप्रैल से दोबारा लागू है। लागू करने के लिए लाखों रुपये पानी की तरह विज्ञापनों में बहा दिए गए। वह भी दिल्ली की ऑड सरकार को ईवन दिखाने के लिए। अपना चेहरा चमकाने के लिए। माननीय केजरीवाल जी जरा ये तो बताइये कि बड़े-बड़े विज्ञापनों में आपकी लंबी मुस्कुराहटों का राज़ क्या है। विज्ञापनों में तो आप कहते हैं कि जो ऑड-ईवन फॉलो न करे उसे प्यार से समझाइये।उससे लड़िए मत। झगड़िए मत। उसे फूल देकर कहिए कि शायद आज आप गलत नंबर की गाड़ी लेकर आए हैं। यदि यह दया और करुणा का भाव असली है तो फिर गलती करने वालों के चालान क्यों काटे जा रहे है। आप प्यार से समझाते रहिए और ऑड-ईवन चलाते रहिए। आपको कौन रोकता है। आप खुद ही बताइये दिल्ली में प्रदूषण चालान से रुकेगा या जागरूकता से। आश्चर्य तो तब होता है जब आप जैसा समझदार व्यक्ति इस तरह का काम करें। कहां तो आप दिल्ली पुलिस को दिन-रात कोसने में लगे रहते हैं। दिल्ली का कोई पुलिस कर्मी आपको फूटी आंख नहीं सुहाता। क्योंकि वह आपके अधीन नहीं है। क्या आप जानते हैं कि जिस दिल्ली पुलिस को आप ठुल्ला कहते हैं उनकी जेबें आपके ही आदेश से गरम हो रही हैं। आप इधर ऑड-ईवन लागू कर अपनी कॉलर टाइट करने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर चालान के नाम पर दिल्ली पुलिस लाखों रुपये कमा रही है। यह भी एक नई कहावत हो गई। करे कोई, कमाए कोई। छोड़िये भी! अब ज़रा हम इस आलेख के मूल मुद्दे की ओर चलते हैं।
क्या देश की संप्रभुता इसे ही कहते हैं। जिसमें एक राज्य अपनी मनमानी करता रहे और बाकी तमाशा देखते रहें। क्या आपको इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं कि आपके आदेश से अन्य राज्यों के नागरिकों के अधिकारों का अवहेलना हो रही है। जिस वाहन ने अग्रिम आजीवन रोड़ टैक्स भरा हो उसे आप सड़क पर चलने से कैसे रोक सकते हैं? ‘मोटर ह्वीकल्स एक्ट टैक्स जमा करने पर वाहन चालक को 24 घण्टे 366 दिन वाहन को सड़क पर चलाने की अनुमति देता है। फिर आप उस पर रोक कैसे लगा सकते हैं। रोक लगाना ही चाहते हैं तो आप दिल्ली में पंजीकृत वाहनों पर रोक लगाइये। वह आपके अधिकार क्षेत्र में आते हैं। लेकिन अन्य राज्यों के वाहनों को सड़कों पर चलने से रोकने का अधिकार आपको किसने दिया। जो आपके लिए उत्तरदायी नहीं उस पर आप कैसे रोक लगा सकते हैं। ज़रा सोचिए कल कोई राज्य इस आदेश के विरोध में दिल्ली में पंजीकृत वाहनों को अपने यहां चलने से रोक दे तो फिर क्या होगा? आश्चर्य तो तब होता है जब ऐसे संवेदनशील मसले पर पड़ोसी राज्य सरकारें जागती नहीं हैं। औरन ही उस राज्य के नागरिक। किसी को अपने अधिकारों की कोई फिक्र नहीं। क्यों किसी ने इस बात पर अब तक अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटाया।
आप चाहें तो अपना यह तुगलकी फरमान आगे भी जारी रखें। उससे पहले कृपा कर अन्य राज्यों के वाहन चालकों कापंद्रह दिनों का टैक्स का पैसा लौटा दीजिए। ज़रा दिल्ली क्षेत्र के राष्ट्रीय राजमार्गों की बात कीजिए। क्या वे आपके अधीन हैं? दिल्ली के राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 1,2,,8,10,24 पर आप अपना अधिकार कैसे जमा सकते हैं? वे तो केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय के अधीन हैं। फिर इन राष्ट्रीय राजमार्गों पर आपकी दादागीरी क्योंउस यात्री की क्या खता जिसे दिल्ली से होकर गुजरना है?  क्या वह एक राज्य से दूसरे राज्य जाने के लिए टोल टैक्स के साथ-साथ, दिल्ली में अपना चालान भी कटवाए। या फिर एक दिन दिल्ली की सीमा रेखा के बाहर खड़े हो कर दूसरे दिन का इंतज़ार करता रहे। क्या आप उसे एक दिन सीमा रेखा पर ठहरने का मुआवजा देंगे?
आपको ज्ञात होना चाहिए कि किसी भी प्रक्रिया को निर्धारित करने वाला कानून उचित, निष्पक्ष और तर्कसंगत होना चाहिए। क्या आपको नहीं लगता कि आपका यह आदेशबाकी राज्यों के नागरिकों की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार में बाधक है? आप भली-भांति जानते हैं कि किसी भी भारतीय नागरिक को किसी भी अन्य राज्य क्षेत्र में आने-जाने की पूर्ण स्वतंत्रता है।किसी भी राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह जो भी कानून बनाए वह कानून न्यायोचित व तर्कसंगत हो। इसमें किसी अन्य राज्य के अधिकारों का हनन न हो। और यदि ऐसी परिस्थिति आती है तो ऐसा कानून बनाने का आग्रह केंद्र सरकार से करना चाहिए। ज्ञात रहे, भारतीय संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है न कि एक संघवादी राज्य। फिर ये तो कानून भी नहीं है। यह तो मात्र आपका आदेश भर है। एक मुहिम है। जो दिल्ली की जनता पर लागू हो सकतीहै लेकिन अन्य राज्यों के नागरिकों पर नहीं। आप ही बताइये कि फिर टोल वसूली और दिल्ली के चालान में क्या फर्क रह जाएगा।
बात इतनी भर नहीं है। इस अलावा भी और कई सुलगते सवाल हैं। नैनीताल उच्च न्यायालय कहती है कि राष्ट्रपति कोई राजा नहीं है तो फिर महामहिम पर ऑड-ईवन लागू क्यों नहीं होता? प्रधानमंत्री खुद को सेवक कहते हैं फिर उन पर ऑड-ईवन क्यों नहीं? प्रजा-प्रजा में भेद क्यों? सैनिकों, महिलाओं व सरकारी वाहनों को छूट किसलिए? क्या उनकी गाड़ियां प्रदूषण नहीं फैलाती? जवाब दीजिए केजरीवाल जी। ये कुछ ऑड सवाल हैं जिनके ईवन जवाब आपको देश की जनता को देने हैं।



Sunday, 24 April 2016

नीतीश के बढ़ते कद से लालू परेशान..?


आउटलुक कार्टून
नीतीश के बढ़ते कद से लालू परेशान..?


Wednesday, 13 April 2016