प्रत्येक रविवार एक नया काम...
गर्मी की छुट्टियां लग चुकी है। बेटी का स्कूल बैग अब राहत की सांस ले रहा है। कॉपी-किताबें दराज में वैसे ही जा बैठी हैं जैसे एक सैनिक लंबी छुट्टी लेकर घर में पड़ा रहता है। स्कूली वर्दी भी अब धुल-धुलाकर मां की अलमारी में घुस चुकि है। मानों साड़ियों के ढ़ेर के बीच 'स्टोरी टेलिंग' का मजा लूट रही हों। और इन सब के बीच मेंरा राजा बेटा उन्मुक्त पवन सा दिन भर यहां से वहां घूम रहा है। न कोई चिंता और न फिकर। मां जब कहे तो सोना और पापा जब बोले तो उठना। न घड़ी का महत्व, न भागती सुइयों का कोई भय। दिन भर टीवी-कम्प्यूटर देखना, अपनी सहेलियों के साथ उझल कूद करना, जूड़ो-कथ्थक की क्लास में जाना और शाम ढ़लते ही स्वीमिंग पूल में कूद पड़ना। बस यही जीवन है।


फिर वह कुछ भी हो सकता है। कोई भी एक मंत्र या स्तोत्र याद करना। अपनी साइकल धोना। अपने खिलौने व्यवस्थित करना, बुक शेल्फ साफ करना, कपड़े जमा कर रखना, धुले कपड़ों की तह लगाना, झाडू लगाना, अपने जूते धोना व पॉलिश करना आदी।
बीता रविवार भी कुछ ऐसा ही था। जब 'रुजुला' ने अपने जूते पॉलिश किए और जुराबें धोकर रक्खी। साथ ही दो-दो हाथ पापा-मम्मी के जूते और सैंडल पर भी दे मारे ताकी अपनी शाबासी डबल बोनस के साथ ले सके। वह भी खूब जानती है कि एक बार टीए-डीए बढ़ा तो बढ़ा। फिर अगली बार उससे कम कुछ भी मंजूर नहीं। यह तस्वीरें उसी ओपनिंग सेशन की हैं। जो अब प्रत्येक रविवार होना ही होना है। "काम और फिर बोनस चाटती रुजुला।"
चाहता हूं आप भी इसे देखें और अपने सुझाव दें। हो सके तो अपने बच्चों पर लागू करें।
धन्यवाद।
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