"गणपति बाप्पा मोरया"
मन में हर्ष है। एक नई उमंग है। हाथों में एक नई कलाकृति है, एक नई सोच। निर्मित आकृति छोटी या बड़ी हो सकती है। बहुत सुन्दर या उससे कमतर हो सकती है। बावजूद इसके मन का सहज-सरल है। जैसा की बाल्यावस्था में होता है। न राग न द्वेष। न कोई लोभ न मोह। जिसे मेरे गुरू, मेरे नाना स्वर्गीय रामचंद्र रघुनाथ करंदीकर कलात्मक वैराग्य कहते थे।
बस निरंतर एक ही जाप "ओम गं गणपतयेनमः" कब मैं अपने इष्ट के दर्शन करूं और कब उन्हें अपनें हाथं से सजा पाऊं।
एक इच्छा रहती है कि हर साल मैं अपने, बाप्पा श्री गणेश को नए आकार, नए प्रकार, नई प्रकृति, नई विषय वस्तु के साथ देख सकूं। श्री गणेश ने मेरी यह इच्छा इस वर्ष भी पूर्ण की है। जो आपके सामने हैं। आप इसका मूल्यांकन करने को स्वतंत्र है। मैं तो बस एक निमित्त हूं। इसे साकार करने के लिए...
।।जय श्री गणेश।।
Aprateem...
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