Monday 16 May 2016

प्रत्येक रविवार एक नया काम...

गर्मी की छुट्टियां लग चुकी है। बेटी का स्कूल बैग अब राहत की सांस ले रहा है। कॉपी-किताबें दराज में वैसे ही जा बैठी हैं जैसे एक सैनिक लंबी छुट्टी लेकर घर में पड़ा रहता है। स्कूली वर्दी भी अब धुल-धुलाकर मां की अलमारी में घुस चुकि है। मानों साड़ियों के ढ़ेर के बीच 'स्टोरी टेलिंग' का मजा लूट रही हों। और इन सब के बीच मेंरा राजा बेटा उन्मुक्त पवन सा दिन भर यहां से वहां घूम रहा है। न कोई चिंता और न फिकर। मां जब कहे तो सोना और पापा जब बोले तो उठना। न घड़ी का महत्व, न भागती सुइयों का कोई भय। दिन भर टीवी-कम्प्यूटर देखना, अपनी सहेलियों के साथ उझल कूद करना, जूड़ो-कथ्थक की क्लास में जाना और शाम ढ़लते ही स्वीमिंग पूल में कूद पड़ना। बस यही जीवन है।
ऐसे व्यस्त जीवन में पापा कोई काम बोल दें तो मूड़ खराब होना ही होना है। लेकिन शायद 'पापा' उन्हें ही कहते हैं। जो रंग में भंग डाले। बने-बनाए मूड़ का सत्यानाश कर दे। दिमाग का दही जमा दें और बिगड़ जाएं तो उसका फालूदा भी बना दें। हर बात में रोके-टोके और बिला वजह डांटे। दुनियां के सारे नियम कायदे उन्हें अपने बच्चे पर ही आजमानेे होते हैं। फिर भले ही खुद उन्हें फॉलो करें या न करें। शायद इसलिए ही मेरी बेटी मुझे "नो मैन" कहकर बुलाती है। यह "यस मैन" और "नो मैंन" की कहानी तब और प्रासंगिक लगती है जब पापा टीवी देखने को 'ना' कहे और मां 'हां'। और फिर घर में दादा-दादी हों तो पापा की कौन सुनता है। पापा की हालत तो शहर के पुलिस की तरह हो जाती है। जिसका कोई भय नहीं। घर के शैतान खुले आम धींगा-मस्ती करते हैं और पापा चौराहे पर खड़े पुलिस वाले की तरह मोम की मूर्ती बने रहते हैं। वो तो भला हो 'मैडम तुसाद' की नज़र अब तक मुझ पर नहीं पड़ी वरना वे मुझे कब की उठा कर ले जाती और अपने म्यूज़ियम में सजा देती। तारीफ में नीचे लिख भी देती, "रुजुला के पापा"। और देश में खब़र तक न झपती।

खैर! मोम की मूर्ती मैैं जब बनू तब बनूं। फिलहाल तो घर में "लौह पुरुष" की भांति दमक रहा हूं। और इस 44 डिग्री टेम्परेचर में तो तप कर कुंदन हुए जा रहा हूं। "रुजुला" के लिए गर्मी की छुट्टियों का शायद यही सबसे बोरिंग समय है। ऐसा ही एक बोरिंग सेशन अब प्रत्येक रविवार की सुबह पापा का होना है। जब वे अपने 'मन की बात' करेंगे। प्रत्येक रविवार एक नया काम..
फिर वह कुछ भी हो सकता है। कोई भी एक मंत्र या स्तोत्र याद करना। अपनी साइकल धोना। अपने खिलौने व्यवस्थित करना, बुक शेल्फ साफ करना, कपड़े जमा कर रखना, धुले कपड़ों की तह लगाना, झाडू लगाना, अपने जूते धोना व पॉलिश करना आदी।
बीता रविवार भी कुछ ऐसा ही था। जब 'रुजुला' ने अपने जूते पॉलिश किए और जुराबें धोकर रक्खी। साथ ही दो-दो हाथ पापा-मम्मी के जूते और सैंडल पर भी दे मारे ताकी अपनी शाबासी डबल बोनस के साथ ले सके। वह भी खूब जानती है कि एक बार टीए-डीए बढ़ा तो बढ़ा। फिर अगली बार उससे कम कुछ भी मंजूर नहीं। यह तस्वीरें उसी ओपनिंग सेशन की हैं। जो अब प्रत्येक रविवार होना ही होना है। "काम और फिर बोनस चाटती रुजुला।"
चाहता हूं आप भी इसे देखें और अपने सुझाव दें। हो सके तो अपने बच्चों पर लागू करें। 
धन्यवाद।


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