Sunday 28 February 2016

बजट के इस रंग को भी गौर से देखें




बजट के इस रंग को भी गौर से देखें

आज देश के आम बजट का दिन है। कुछ ही घंटों में वित्तमंत्री इसे सार्वजनिक करेंगे। इससे पहले कि वे अपनी चमचमाती अटैची से बजट भाषण निकालकर घण्टा- दो घण्टा हमें बोर करें, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं। चाहता हूं कि आप इस बार बजट को एक अलग नज़रिये से देखें। अमूमन, हम सभी बजट में अपने फायदे की बातें पहले देखा करते हैं। जिसे देखना भी चाहिए। आख़िर वह हम सब की जेब से जुड़ा मामला है। लेकिन मैं चाहता हूं कि आप इसके अतिरिक्त भी बजट को देखें। एक अलग रंग आपको इसमें नज़र आएगा। वह रंग है मीडिया की कलात्मक सोच का। बजट के प्रस्तुतिकरण का। वह रंग, जो हम सबके सामने बिखरा होता है। टेलिविजन और अखबारों में। जो हम सबको अच्छा भी लगता है। बावजूद इसके हम उस पर कभी चर्चा नहीं करते। क्योंकि हम बजट को केवल नफे-नुकसान के नजरिए से देखते हैं। अतः इस बार आप मीडिया की बजट कवरेज पर खासा ध्यान रखें। देखें कहीं कोई रंग छूट न जाए। आपको इसमें एक प्रतिस्पर्धा नज़र आएगी। खुद को बेहतर साबित करने की प्रतिस्पर्धा। ऐसी स्पर्धा जिसमें देश के जाने माने मीडिया आर्टिस्ट अपना हुनर दिखाते होंगे।
सचमुच, बजट बनाना कोई आसान काम नहीं। सरकार का वित्त विभाग महीनों की मश्क्कत के बाद इसे तैयार करता है। करीब सौ लोगों की टीम दस दिनों तक नॉर्थ ब्लॉक में कैद कर दी जाती है। बजट लिखने से छपने तक सारी प्रक्रिया को पूरी तरह से गोपनीय रखा जाता है। आपको यह जानकर हैरानी होगी इन्हीं दिनों में देश का मीडिया भी अपनी अभूतपूर्व तैयारी में जुटा होता है। वह भी वैसी ही गोपनीयता के साथ। कमर कसकर रेलआम बजट का इंतज़ार करता है। तैयारियों के वे दस दिन किसी भी मीडियाकर्मी के लिए सूकून भरे नहीं कहे जा कहे सकते। जहां एक ओर ज्यादा से ज्यादा कंटेंट जुटाने का काम संपादकीय विभाग पर होता है वहीं पेश किए जाने वाले बजट का प्रस्तुतीकरण कला विभाग को देखना होता है। मजे की बात यह है कि प्रत्येक संपादक बजट अपने नजरिए से देखता है। और उसी नज़रिए को ध्यान में रख कला विभाग को अपना काम करना होता है।         
एक मीडिया आर्टिस्ट के नाते सालों तक मैं भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा रहा हूं। प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ही धाराओं में बजट की तैयारियों को करीब से देखा है। उस दौरान काम के दबाव को महसूस किया है। बीते पच्चीस सालों में बहुत कुछ बदला है। जहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आज बजट को नए लुक, नए अंदाज में आपके सामने पेश करता दिखाई देगा, वहीं कल के समाचार पत्र अपने अलग ले-आउट के साथ आपका बजट आप तक पहुंचाएंगे। कल सुबह के अख़बार जब आप अपने हाथों में लें तो जरा गौर से देखिए। देश के नामचीन मीडिया आर्टिस्ट आप के बजट पर किस तरह अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे होंगे। एक ऐसी प्रदर्शनी आपके हाथों में होगी जिसे किसी कलादीर्घा की आवश्यकता नहीं है। नज़र रखिएगा कि किस तरह टीवी चैनलों के ग्राफिक डिज़ाइनर आप तक आपका बजट पहुंचा रहे हैं। जहां समाचार पत्रों में आप ग्राफिक्स, इलस्ट्रेशन, कार्टून देखेंगे, वहीं टीवी चैनलों के ग्राफिक प्लेट से लेकर टिकर तक सबकुछ आपको बदला-बदला नज़र आएगा।
इस सबके बावजूद सरकार और मीडिया में एक बहुत बड़ा फर्क है। जहां बजट बनने से पहले वित्तमंत्री स्वयं अपने हाथों से सभी बजट कर्मियों को मूंग का हलुवा खिलाते हैं, वहीं मीडिया में ऐसी कोई प्रथा नहीं है। यहां तो बजट की ठीक-ठाक प्रस्तुति पर ही संपादक से कोई आशा की जा सकती है। अन्यथा कलाकारों का कोर्ट मार्शल किया जा सकता है।





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Friday 26 February 2016

Thursday 25 February 2016

Wednesday 10 February 2016

देश का पहला स्टार कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग
-माधव जोशी

काली पैंट, काला शर्ट और उस पर काले रंग का ही कोट। सुधीर तैलंग की शक्सियत का एक हिस्सा थे। लिबाज़ काला था। और कार्टूनिंग की स्याही भी काली। लेकिन नज़र हमेशा सफेदपोश नेताओं पर टिकी रहती थी। कौन जाने किस पर उनकी नज़र टिके और अगले दिन उसका कार्टून बन जाए। सुधीर तैलंग देश के जाने-माने कार्टूनिस्ट थे। एक विशुद्ध पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट। जिसने हमेशा नेताओं की कारगुजारियों पर व्यंग्य कसे। उन पर चुटकियां ली।
वही सुधीर तैलंग अब नहीं रहे। बीते शनिवार, 7 फरवरी को उन्होंने अंतिम सांस ली। वे ब्रेन कैंसर से ग्रसित थे। 1960, बीकानेर, राजस्थान में जन्में सुधीर तैलंग ने मात्र 10 वर्ष की आयू से ही कार्टून बनाना शुरू कर दिया था। जबकि 20 साल के होत-होते वे टाइम्स समूह में बतौर ट्रेनी जर्नलिस्ट की नौकरी पा चुके थे। इसी दौर में उनके बनाए कार्टून इलस्ट्रेटेड विकली व इकनोमिक टाइम्स में भी प्रकाशित होने लगे थे। इसके कुछ सालों पश्चात वे नवभारत टाइम्स के स्थायी कार्टूनिस्ट बने। लेकिन जल्द ही उन्हें हिन्दुस्तान टाइम्स का बुलावा आया। हिअर एण्ड नाऊ उनका लोकप्रिय कॉलम था। जिसने उस समय बेहद सुर्खियां बटोरी। जिसके चलते वर्ष 2004 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।
वे थे तो एक कार्टूनिस्ट लेकिन उनका जलवा किसी सितारे कम नहीं था। वे एक स्टार कार्टूनिस्ट थे। नए ज़माने के कार्टूनिस्ट। जिसने ग्लैमर से अपनी कार्टून कला को चमकाया था। उन्होंने कार्टूनिंग के इतर भी अपना नाम कमाया। फिर चाहे फिल्म हो या फैशन शो, मीडिया हो या रसूखदार लोगों की महफिल उन्होंने अपनी पहचान हर जगह बनाई। राजनैतिक गलियारों में भी सुधीर तैलंग के दोस्त कम नहीं थे। यही वजह थी कि देश की लगभग सारी नामचीन हस्तियाँ उनके साथ नज़र आती थीं। 
अटल-आडवाणी, मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, माधवराव सिंधिया, शीला दिक्षित से आज के नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल तक सब पर उन्होंने कार्टून बनाए। सुधीर तैलंग के कुछ प्रमुख कार्टूनों में से एक तीन प्रधानमंत्रियों का एक ही क्लास में बैठ नकल करना रोचक था। तो वहीं जयललिता के बोझ तले अटलजी का दबा रहना मज़ेदार सा लगा। वैसे ही एक कार्टून जिसमें आड़वाणी अपना घर(पार्टी) बना रहे हैं और मोदी उसपर अपना नेमप्लेट ठोक रहे हैं चर्चित रहा। साथ ही कुछ कार्टून दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर भी बने। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर उनकी किताब नो प्राइम मिनिस्टर इन्हीं सालों के बेहतरीन कार्टूनों का संग्रह है।
राजनैतिक विषयों पर सुधीर तैलंग का ह्यूमर काफी मजबूत था। पिछले कुछ सालों की उनकी कार्टूनिंग को देखा जाए तो उसमें एक अलग ही पैना पन आ गया था। सुधीर तैलंग ने जिस दौर में अपना नाम कमाया, वह अपने आप में एक बहुत बड़ा कारनामा था। वह दौर जिसमें लक्षमण, ठाकरे, रंगा व मारियो जैसे दिग्गज कार्टूनिस्ट थे।
लेकिन कुछ सालों पहले ही जब उन्हें ब्रेन कैंसर का पता चला वे तब से बीमार रहने लगे। ब्रेन के ऑपरेशन के वक्त भी उनका ह्यूमरस अंदाज कम न था। शायद इसलिए ही वे अपने ब्रेन ट्यूमर को भी ह्यूमरस बम कहते थे। ऑपरेशन के बाद किसी ने उनसे सवाल किया कि डॉक्टर को आपके दिमाग में क्या मिलासुधीर तैलंग का जवाब था, कार्टून ही कार्टून। वे आख़िरी सांस तक डॉक्टर से कहते रहे मुझे ट्यूमर नहीं ह्यूमर हुआ है। आप मेरे दिमाग से ट्यूमर तो निकाल सकते हैं, ह्यूमर नहीं।  
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कार्टून के इतर भी बहुत कुछ रंगने वाला 
कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग
-माधव जोशी

सुधीर तैलंग से मेरी पहली मुलाकात भोपाल में हुई थी। उन्हें एक कार्यशाला में बुलाया गया था। जबकि मैं  दर्शक दीर्घा में बैठा था। कार्यशाला समाप्त होने पर हमारा विधिवत परिचय हुआ। सुधीर मेरा नाम पहले से जानते थे। जब मैंने उन्हें अपना कार्ड दिया तो देखते ही बोले, क्या गज़ब का कार्ड डिज़ाईन किया है दोस्त!”
सामाजिकतंत्र रक्षणाय, व्यंग्यचक्र प्रवर्तनाय।।” कार्ड पर लिखे मेरे बोध वाक्य को पढ़ वे जमकर हंसे थे। कुछ और प्रशंसा भरे शब्द उन्होंने कहे और बोले, मैंने तुम्हारा नाम सुना है। दरअसल सुधीर तेलंग की बड़ी बहन भोपाल में ही रहा करतीं थीं। वे अक्सर मेरे दफ्तर में मुझसे मिलने आया करतीं। वे बड़ी ही मृदुभाषी और मिलनसार थीं। वे जब भी दफ्तर आतीं तो मुझसे लम्बी बातें किया करतीं। उसी दौरान वह अपने भाई सुधीर का जिक्र किया करती। संभवतः सुधीर जी ने उन्हीं से मेरे बारे मे सुना होगा।
कुछ सालों बाद मैं भी दिल्ली आ गया। वह सुधीर तैलंग का दौर था। मैंने उन्हें फोन कर मिलने का समय मांगा। समय दिया लेकिन वे समय पर नहीं मिले। दूसरी दफा भी कुछ ऐसा ही घटा। उसके बाद उनसे मिलने का विचार मेरे मन में कभी नहीं आया। इस बीच उन्हें पद्मश्री की घोषणा हुई। मैंने उन्हें तुरंत फोन किया। मेरी आवाज सुनते ही बोले, “ मेरी पद्मश्री की खुशी दोगुनी हो गई माधव, जो सबसे पहला फोन एक कार्टूनिस्ट का आया। उसके बाद बीच-बीच में बातें होती रही व मैसेज का आदान-प्रदान भी चलता रहा।
वर्ष 2012, संसद में शंकर के चार दशक पहले बनाए एक कार्टून पर जमकर हंगामा हुआ। कई दिनों तक संसद में हंगामा जारी था। अंततः सरकार ने उसे एनसीईआरटी की किताब से हटाने का निर्णय लिया गया। जिससे मैं बेहद आहत था। तब भी मैंने सुधीर जी से कहा था चलिए हम सब मिलकर महामहीम राष्ट्रपति जी से इन सारे नेताओं की शिकायत कर आते हैं। इसी बहाने इन नेताओं पर कुछ कार्टून बनाने का मौका हमें मिलेगा और ख़बर बनेगी सो अलग। लेकिन बात कुछ बन न सकी।  
2015 फिर एक दिन अचानक फ्रांस में शार्ली एब्दो पत्रिका पर हमले की ख़बर आयी। आतंकियों ने मैगज़ीन के चार कार्टूनिस्टों की हत्या कर दी थी। उस वक्त टीवी पर सुधीर तैलंग अपने फ्रांस दौरे के संस्मरण सुना रहे थे। साथ ही उस पत्रिका के ऑफिस में बिताए अपने चंद लम्हें भी साझा कर रहे थे। जिसमें वे मुझे कहीं शार्ली एब्दो की तरफदारी करते लगे। मैं तुरंत फोन लगाकर उनसे अपना विरोध दर्ज कराया। मैंने कहा कि किसी की भावनाओं को आहत करना कार्टूनिंग नहीं है। लेकिन उनका नज़रिया अलग था। जम कर बहस हुई। शायद वही हमारी आख़िरी बातचीत थी।
आज सुधीर तैलंग हमारे बीच नहीं है। एक ऐसे वक्त में किसी कार्टूनिस्ट का जाना अखरता है जब देश और दुनिया में व्यंग्य और कटाक्ष की ज्यादा जरूरत हो। जहां देश में चारो ओर असहिष्णुता पर बहस छिड़ी हो। आतंकवाद समूचे विश्व को मुंह चिढ़ा रहा हो। महंगाई कम होने का नाम न ले रही हो। दिल्ली में केन्द्र और राज्य के बीच मारा मारी हो। आसम, पश्चिम बंगाल, पंजाब व उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के चुनाव सामने खड़े हो। ऐसे में उस पर चुटकी लेने वाला कोई दिग्गज कार्टूनिस्ट हमारे बीच न हो तो सोचिए व्यंग्य की धार कैसी होगी?
सच कहूं तो मैं सुधीर तैलंग के काम से ज्यादा उनके नाम से प्रभावित था। सुधीर तैलंग ने जिस दौर में अपना नाम कमाया वह अपने आप में एक बहुत बड़ा कारनामा था। वह दौर जिसमें लक्षमण, ठाकरे, रंगा व मारियो जैसे दिग्गज कार्टूनिस्ट थे। जिनकी रेखाएं पाठकों के दिलों-दिमाग पर राज़ कर रही थी। जो कार्टून कला की मानक मानी जाती थी। जहां लक्षमण कार्टूनिंग का पर्याय बन चुके थे। ऐसे में सुधीर तैलंग का इस क्षेत्र में आना और मशहूर हो जाना अपने आप में अजूबा था। हलांकि उन सालों की परिस्थियों पर नज़र डाले तो समूचे देश में राजनीतिक अराजक्ता का माहैल था। एक के बाद एक अल्पमत सरकारों का बनना और बिगड़ने का क्रम जारी था। एक तरफ मंडल तो दूसरी ओर कमंडल का शोर था। ऐसे में कार्टूनिस्टों को कार्टून के लिए ढ़ेरो विषय मिल रहे थे। उसके बाद घोटालों का ऐसा दौर चला कि मानों हम कार्टूनिस्टों के लिए किसी ने आयडिया का पिटारा खोलकर रख दिया हो। ऐसे में सुधीर तैलंग भी अनवरत काम करते रहे। आगे कुछ वर्षों में देश में टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई। सुधीर तैलंग के साथी यहां वहां चैनलों में हेड बन गए। बस फिर क्या था सुधीर तैलंग को एक नई राह मिली। जिसका उन्होनें भरपूर उपयोग किया। वे अक्सर चुनाव परिणामों के दौरान टीवी पर भी नज़र आने लगे। इसके अतिरिक्त भी स्पेशल गेस्ट के तौर पर टीवी चैनलों पर आना अनवरत जारी रहा जिससे वे प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचे।
कहने को तो लक्ष्मण एक पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट कहे जाते थे। लेकिन मेरी नज़र में वे एक बेहतरीन सोशल कार्टूनिस्ट थे। उनके राजनैतिक चित्रों में भी कहीं न कहीं सामाजिकता छुपी होती थी। एक समूचे पॉलीटिकल कार्टूनिस्ट के तौर पर मैंने सुधीर तैलंग को ही देखा। आर के लक्ष्मण और मारियो की रेखाओं से तुलना की जाए तो शायद हम सुधीर तैलंग को याद न भी रखें लेकिन राजनैतिक विषयों पर सुधीर तैलंग का ह्यूमर, उनके ट्यूमर से ज्यादा खतरनाक था। पिछले कुछ सालों की उनकी कार्टूनिंग को देखा जाए तो आप पाएंगे कि उसमें एक अलग ही पैना पन आ गया था। शायद यही वजह थी कि अपने ब्रेन ट्यूमर को भी ह्यूमरस अंदाज़ में देखा करते थे। वे बातों ही बातों में उसे ह्यूमरस बम कहते थे। उनके ऑपरेशन के बाद किसी ने उनसे सवाल किया कि डॉक्टर को आपके दिमाग में क्या मिलातो सुधीर तैलंग का जवाब था कार्टून ही कार्टून।
सुधीर तैलंग का व्यक्तित्व अपने आप में अजूबा इसलिए भी था क्योंकि उन्होंने कार्टूनिंग के इतर भी अपना नाम कमाया। शायद वह देश के सबसे ग्लैमरस कार्टूनिस्ट थे। जहां देश के कार्टूनिस्ट मात्र एक कॉलम की जद्दोजहद में लगे हों वहां समाज के अन्य क्षेत्रों में अपनी कला की धमक पहुंचाना भी एक कला थी। फिर चाहे फिल्म हो या फैशन शो, मीडिया में अपनी पहचान बनाए रखनी हो या राजनैतिक गलियारों में। सुधीर तैलंग इसके माहिर खिलाड़ी थे। यही वजह थी कि देश की लगभग सारी नामचीन हस्तियों के साथ खासकर राजनेताओं के साथ वे नज़र आते थे।  
सुधीर तैलंग के कुछ प्रमुख कार्टूनों में से एक तीन प्रधानमंत्रियों का एक ही क्लास में बैठ नकल करना रोचक था। तो वहीं जयललिता के बोझ तले अटलजी का दबा रहना मज़ेदार सा लगा। वैसे ही 2013-14 में प्रकाशित एक कार्टून जिसमें आड़वाणी अपना घर(पार्टी) बना रहे हैं और मोदी उसपर अपना नेमप्लेट ठोक रहे हैं चर्चित रहा। साथ ही कुछ कार्टून दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर भी बने। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर उनकी किताब नो प्राइ मिनिस्टर इन्हीं सालों के बेहतरीन कार्टूनों का संग्रह है।
सुधीर तैलंग का जन्म राजस्थान के बीकानेर में सन् 1960 में हुआ था। उन्होंने इलस्ट्रेटेड विकली से अपनी कार्टूनिंग की शुरुआत की। फिर बाद में नवभारत टाईम्स, इंडियन एक्सप्रेस व एशियन ऐजके साथ भी काम किया। वर्ष 2004 में उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा गया।  
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ट्यूमर से भी ज्यादा खतरनाक एक ह्यूमर
-माधव जोशी

वह था तो मात्र एक कार्टूनिस्ट लेकिन उसका जलवा किसी सितारे कम नहीं था। कागज पर भले ही उसने हमेशा काली स्याही से ही काम चलाया हो लेकिन उसकी जिंदगी कई रंगों से भरी थी। वह उन कार्टूनिस्टों मे से कतई नहीं था जो मात्र एक कॉलम पाकर खुश रह सकते थे। वह उनमें से भी नहीं था जो अपनी व्यस्तता में अपने उस कॉलम की गरिमा को भुल जाए। वह काम के वक्त कार्टूनिस्ट था जबकि उसके इतर एक स्टार। वह एक स्टार कार्टूनिस्ट था। नए ज़माने का कार्टूनिस्ट। जिसने ग्लैमर से अपनी कार्टून कला को चमकाया था। नाम था सुधीर तैलंग।
इसमें कोई दो राय नहीं कि लक्ष्मण अब तक भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय कार्टूनिस्ट हुए। जिनकी ख्याति एक पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट के तौर पर थी। लेकिन मेरी नज़र में वे एक बेहतरीन सोशल कार्टूनिस्ट थे। उनके राजनैतिक चित्रों में भी कहीं न कहीं सामाजिकता छुपी होती थी। एक विशुद्ध पॉलीटिकल कार्टूनिस्ट के तौर पर मैंने सुधीर तैलंग को ही देखा था। यही वजह थी कि सुधीर के कार्टूनों में सामाजिक विषय कम ही देखने को मिलते थे। आर के लक्ष्मण और मारियो की रेखाओं से यदि हम सुधीर तैलंग की रेखाओं की तुलना करें तो शायद हम उन्हें भविष्य में याद न भी रखें। लेकिन राजनैतिक विषयों पर सुधीर तैलंग का ह्यूमर काफी मजबूत था। या यूं कहें कि उनका ह्यूमर उनके ट्यूमर से ज्यादा खतरनाक था। यदि पिछले कुछ सालों की उनकी कार्टूनिंग को देखा जाए तो आप पाएंगे कि उसमें एक अलग ही पैना पन आ गया था। शायद यही वजह थी कि वे अपने ब्रेन ट्यूमर को भी ह्यूमरस अंदाज़ में देखा करते थे। वे बातों ही बातों में उसे ह्यूमरस बम कहते थे। ऑपरेशन के बाद किसी ने उनसे सवाल किया कि डॉक्टर को आपके दिमाग में क्या मिला सुधीर तैलंग का जवाब था, कार्टून ही कार्टून। वे आख़िरी सांस तक डॉक्टर से कहते रहे मुझे ट्यूमर नहीं ह्यूमर हुआ है। आप मेरे दिमाग से ट्यूमर तो निकाल सकते हैं, ह्यूमर नहीं। 
सुधीर तैलंग का व्यक्तित्व अपने आप में अजूबा था। अजूबा इसलिए भी क्योंकि उन्होंने कार्टूनिंग के इतर भी अपना नाम कमाया। शायद वह देश के सबसे ग्लैमरस कार्टूनिस्ट थे। जहां देश के अन्य कार्टूनिस्ट अपने कॉलम की जद्दोजहद में लगे थे, वहां वे समाज के अन्य क्षेत्रों में अपनी कला की धमक बखूबी पहुंचा रहे थे। फिर चाहे फिल्म हो या फैशन शो, मीडिया में अपनी पहचान बनाए रखनी हो या राजनैतिक गलियारों में। सुधीर तैलंग इसके माहिर खिलाड़ी थे। यही वजह थी कि देश की लगभग सारी नामचीन हस्तियाँ उनके साथ नज़र आती थीं। 
सच कहूं तो मैं सुधीर तैलंग के काम से ज्यादा उनके नाम से प्रभावित था। सुधीर तैलंग ने जिस दौर में अपना नाम कमाया, वह अपने आप में एक बहुत बड़ा कारनामा था। वह दौर जिसमें लक्षमण, ठाकरे, रंगा व मारियो जैसे दिग्गज कार्टूनिस्ट थे। जिनकी रेखाएं कार्टून कला की मानक बन चुकिं थीं। जहां लक्ष्मण के आसपास भी कोई नज़र नहीं आता था। ऐसे में सुधीर तैलंग का इस क्षेत्र में आना और मशहूर हो जाना अपने आप में अजूबा था।
हलांकि उन सालों की परिस्थियों पर नज़र डाले तो समूचे देश में राजनीतिक अराजक्ता का माहैल था। एक के बाद एक अल्पमत सरकारों का बनने और बिगड़ने का क्रम जारी था। एक तरफ मंडल तो दूसरी ओर कमंडल का शोर था। ऐसे में कार्टूनिस्टों को कार्टून के लिए ढ़ेरो विषय मिल रहे थे। उसके बाद घोटालों का ऐसा दौर चला कि हम कार्टूनिस्टों के वारे-न्यारे हो चुके थे। घोटाला सिर्फ घोटाला न होकर आयडिया का पिटारा हुआ करता था। ऐसे में सुधीर तैलंग भी कूची भी जमकर चलती रही। आगे कुछ वर्षों में देश में टीवी चैनलों की बाढ़ आ गई। सुधीर तैलंग के साथी यहां वहां चैनलों में हेड बन गए। जिससे सुधीर तैलंग ने एक नई राह पकड़ी। जिसका उन्होनें भरपूर फायदा हुआ। वे अक्सर चुनाव परिणाम, टीवी डीबेट्स व अन्य कार्यक्रमों में स्पेशल गेस्ट के तौर पर नज़र आने लगे। जिससे वे प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचे। वर्ष 2004 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाज़ा। इतना कुछ हासिल कर लेने के बाद भी ह्यूमर का कीड़ा उनमें बचा रहातो इसे ट्यूमर से ज्यादा खतरनाक मानना ही होगा।

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